।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.07।।
।। अध्याय 05.07 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 5.7॥
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥
“yoga-yukto viśuddhātmā,
vijitātmā jitendriyaḥ..।
sarva-bhūtātma-bhūtātmā,
kurvann api na lipyate”..।।
भावार्थ :
“कर्म-योगी” इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है और सभी प्राणीयों की आत्मा का मूल-स्रोत परमात्मा में निष्काम भाव से मन को स्थित करके कर्म करता हुआ भी कभी कर्म से लिप्त नहीं होता है। (७)
Meaning:
One who is established in yoga, who has conquered the mind, body and senses, one who sees his own self in all beings, even while acting is not tainted.
Explanation:
The word atma has been used in multiple ways in the Vedic literature: for God, for the soul, for the mind, and for the intellect. This verse typifies all these uses. Shree Krishna describes the karm yogi who is yog yukt (united in consciousness with God). He says that such a noble soul is: 1) viśhuddhatgma, of purified intellect, 2) vijitatma, who has conquered the mind, and 3) jitendriya, one who has controlled the senses.
These are the three conditions which make a karma yogi, giving priority to spiritual growth; dedicating the very life as an offering to the Lord and accepting every experience as prasadam from the Lord. Such a person is called yogayuktaḥ and what is the result of this sadhana? This sadhana changes the personality. So what becomes different, while the society is going to measure your success in terms of your possession, vedanta measures your success in terms of your personality transformation. Karma yoga may not bring success as the society sees but karma yoga brings success as vedanta sees.
First stage is Yogayukthaḥ, karma yogi is one, who balances materialistic pursuits and spiritual pursuits. Karma yogi is one who does not spend the whole day in earning money only. A karma yogi knows that every individual is a mixture of matter and spirit; atma is spirit, anatma is matter; dehi is spirit, deha is matter, we are all a mixture of both of them. That means our life should have a balance between spiritual pursuit and material pursuit.
What I am is more important than what I have. Śankarācārya describes a jnani who does not possesses anything at all but still he is purṇa; therefore ultimately what matters is not what I have but what I am; If this importance is understand, I have become a beginning karma yogi.
And this karma yōgi will gradually become what viśuddhatma, viśuddhātmā will get a purer mind where the vairāgyam becomes more and more; he depends less and less on external factors; because he has understand that dependence is samsara; and independence is mokṣa.
Imagine that a new factory has opened up in a small town, and the public has been invited to take tours of the factory. In one such tour, we have a businessman, an environmentalist, an engineer and a musician. As he is walking through the factory, the businessman’s first thought is about the amount of profit that this factory generates. The environmentalist thinks about the pollution caused by the factory. The engineer marvels at the brand new machines. And the musician loves the rhythm generated by the clanking machines. One’s vision gives an indication of how one’s mind works.
In this shloka, Shri Krishna illustrates the vision of one who is acting with the spirit of karma yoga. Even while acting, that person does not generate any further desires, because he has the same vision that a renouncer has. He sees the eternal essence everywhere, in himself as well as in everyone else. And like the example we saw earlier, his vision indicates that his entire personality, including his mind and intellect, have gained the knowledge of the eternal essence.
Furthermore, Shri Krishna reminds us that such knowledge is not possible without first bringing the body, mind and senses under control. Actions performed by such an individual do not “taint” him. Only when the sense of doership and enjoyership is present can actions can taint someone, in other words, cause further desires to sprout. When the ego behind actions has gone away, then those actions do not generate further desires.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पहले भी भगवान ने कहा है कि ब्रम्हा द्वारा इस सृष्टि का संचालन एवम धर्म की रक्षा करने हेतु मुझे भी अवतरित हो कर कर्म करना पड़ता है किंतु मुझे कर्म बंधन नही होते और न ही मेरा जन्म होता है।
ज्ञान कर्म सन्यास योगी जो परमात्मा है दिव्य स्वरूप एवम दिव्य कर्म को प्राप्त करता है उस के गुणों एवम उस के पूर्ण योग की स्थिति को इस श्लोक में वर्णन किया गया है।
जिस व्यक्ति ने शरीर, मन, इंद्रियाओ पर विजय प्राप्त कर ली हो और जो शुद्ध अन्तःकरण के साथ चेतन से मुक्त हो कर चैतन्यमय हो कर परमात्मा से एकीकरण प्राप्त कर चुका हो, वो ज्ञान युक्त कर्मयोगी किसी भी कर्म में कर्म करता हुआ भी लिप्त नही होता। ईश्वर के जिस दिव्य कर्म को हम ने पहले पढ़ा था उस को जानने वाला किस प्रकार का जीव होगा यह ही अब भगवान बता रहे है। हम इस को इस प्रकार समझ सकते है।
1, जो विजेता है अर्थात जिस ने अपने शरीर पर काबू पा लिया है यानी पूर्ण रूप से स्वस्थ है।
2, जो जितेंद्रिय है यानि जिस ने मन, इच्छा, मोह, कामनाओं एवम अपनी भावनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। अर्थात जिस ने अपनी ज्ञान इंद्रियाओ एवम कर्म इंद्रियाओ को नियंत्रित कर लिया है।
3 जो विशुद्ध है यानि जो कर्तृत्व एवम भोक्तत्व इन दोनों भाव से मुक्त है, जिस में तत्वदर्शन ज्ञान द्वारा अहम नष्ट हो चुका है।
यदि अहम नही अर्थात जिसे यह भी ज्ञान नहीं कि उस का अहम नष्ट हो चुका है वो और परमात्मा एक ही हो जाते है। क्योंकि सम्पूर्ण प्राणियो का मूल तत्व या मूल उदगम परमतत्व ही है जिस में वो स्थित हो जाता है। अद्वैत में परमात्मा और जीव के मध्य अहम का अंतर है, जब जीव का अहम नही रहता, तब जीव भी परमात्मा से अलग हो कर दो नही रहते तो उस के भी सभी कर्म दिव्य कर्म हो जाते है अर्थात उस ने भगवान के दिव्य स्वरूप एवम दिव्य कर्म को प्राप्त कर लिया होता है।
जब निष्काम भाव का उदय होता है तो भी कर्ता भाव बना रहता है। यह अहम की मैं लोकसंग्रह हेतु कार्य कर रहा हूँ, मन, बुद्धि एवम जीव को बांधे रखता है। इस से आगे जब कर्ता भाव समाप्त हो जाता है तो करनेवाला या कराने वाला या जिस के लिये किया जाता है, सब एकत्व में शामिल हो जाता है। वह सभी मे स्वयं को देखता है। जिसके मनसे राग-द्वेष आदि संसार – विषयक कल्पनाएं शान्त हो गयी हैं, जो अंग-प्रत्यंगोवाला देहधारी होकर भी देहात्मबोध से रहित है , जिस का चित्त जन्म-मरण आदि की चिन्ताओं से पूर्णतः मुक्त हो गया है , उसे जीवन- मुक्त कहते हैं ।
प्रारब्धवश छाया के समान रहनेवाली देह में विद्यमान रहते हुए भी , अहंता और ममताका नितान्त अभाव होना एवम जीवन मुक्त होने अर्थ है भूतकाल में हुई घटनाओं का स्मरण- विश्लेषण न करना, भविष्य की चिन्ता न करना और वर्तमान में प्राप्त हुए सुख-दुख आदि में पूर्णतः उदासीन रहना, अपने आत्मस्वरूप से सर्वथा पृथक, इस गुणदोषमय संसार में सर्वत्र समदर्शी ( ब्रह्मरूप देखना ) होना एवम प्रिय और अप्रिय– जो भी प्राप्त होता है, दोनों अवस्थाओं में मन का समदृष्टि से निर्विकार बने रहना है।
देह तथा इन्द्रियादि में और कर्तव्य में जो ममता और अहंकार से रहित होकर उदासीनतापूर्वक रहता है एवम श्रुति या गुरू से महाकाव्य -श्रवण के द्वारा जिसे अपने ब्रह्मभाव की अनुभूति हो गयी है और जो भव – बन्धन से मुक्त हो चुका है , वह पुरुष जीवन मुक्त हो जाता है।
वस्तुतः कर्मयोग या सांख्य योग से मनुष्य जब कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव से मुक्त होता है, तो उस मे ज्ञान का उदय होता है। वह सभी मे अपने को और अपने मे सभी को देखने लगता है। इसलिये वह कर्म करता हुआ भी निर्लिप्त रहता है।
अष्टावक्र जी कहते हैं– ‘ मैं कर्ता हूँ ‘ –
ऐसे अहंकार रूपी विशाल काले सर्प से तुम डसे हुए हो । ‘ मैं कर्ता नहीं हूँ ‘-
ऐसे विश्वास रूपी अमृत को पीकर सभी प्रकार के दु:खों से मुक्त हो जाओ । यह अहंकार ही पाप का मूल है । अहंकार से ही संसार का खेल है। अहंकार को समाप्त करने का एकमात्र उपाय है कि यह निश्चित कर लो कि तुम बोध स्वरूप आत्मा हो ।।
अष्टावक्र जी कहते हैं– हे विभो (व्यापक) ! धर्म-अधर्म, सुख-दुख और कर्म मन से होते हैं – ये तुम्हारे धर्म नहीं हैं। तुम न कर्ता हो, न भोक्ता हो; तुम तो सदा से मुक्त ही हो। यथार्थ में धर्म-अधर्म, सुख-दुख मन के ही हैं। अहंकार और मन के समाप्त होते ही मनुष्य कर्तापन और भोक्तापन, धर्म और अधर्म एवम् सुख और दुख से मुक्त हो जाता है ।।
शंकराचार्य जी ने भी कहा है;
कौन कर्म और अज्ञान – इन दोनों के नाश की कल्पना करने में समर्थ है अर्थात पुरुष के लिए यह कल्पना करना कि कौन कर्म और अज्ञान को नाश कर सकता है , कठिन है । किसी समय में भी अज्ञान के साथ कर्म का विरोध देखने में नहीं आता है ।
इसलिए कर्म से अज्ञान का नाश नहीं हो सकता है । जिस क्षण, ज्ञान के संयोग से कर्म का नाश होता है , उस समय ज्ञान और कर्म दोनों का विरोध होना उचित है ; जैसे प्रकाश और अंधकार दोनों में परस्पर विरोध होता है । तात्पर्य यह है कि हम एक ऐसा नियम देखते हैं कि एक ही समय में , किसी के संयोग से दूसरी वस्तु का नाश होता है । मन में भी परस्पर विरोध देखने में आता है । अतः पृथक-पृथक स्वभाववाले उन दोनों का ही विरोधीपना उचित है , जैसे अन्धकार और प्रकाश का आपस में विरोधीपना है । इसलिए जब ज्ञान का सम्बन्ध ( संयोग ) होता है , तब अज्ञान का नाश होता है । अर्थात ज्ञान ही अज्ञान के नाश का कारण है ।।
प्राणी कर्म के अनुसार ही जन्म लेता है और कर्म के अनुसार मई मरता है । यह जन्म -मरण का प्रवाह कर्म का ही फल है । क्योंकि कर्म अज्ञान का कार्य है और अज्ञान के कारण बढ़ता है । इसलिए जन्म- मरण के प्रवाह के अतिरिक्त इससे विलक्षण और कोई कार्य, कर्म का नहीं है ।।
अगले श्लोक में हम इस प्रकार के ज्ञान कर्म सन्यास योगी कैसा दिखता है और किस प्रकार रहता है, व्यवहार करता है पढ़ेंगे। क्या आप ने ऐसा कर्मयोगी पुरुष देखा है तो अवश्य विचार करे कि क्या उस मे यह सब गुण है।
।। हरि ॐ तत सत।। 5.07।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)