।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.05।। Additional II
।। अध्याय 05.05 ।। विशेष II
।। सांख्य योग एवम कर्म योग ।। विशेष 5.05 ।।
दृश्य 1 – घर से भाग कर सन्यास ले लिया, वस्त्र गेरूवें, गले में रूद्र माला और ललाट पर चंदन। कुछ दाढ़ी भी बडी हुई। किंतु मन में सांसारिक वस्तुओं अच्छे आश्रम, कार, भोजन और वस्त्र की अभिलाषा। इसलिए अमीर चेलों को खोजते रहना। यह सन्यास न तो कर्मयोग है और न ही कर्म सन्यास।
दृश्य 2, व्यापार में खूब धन कमाया, बच्चे भी आज्ञाकारी, समाज में बहुत नाम और दान धर्म में संस्थाओं कोचन्दा भी दे कर वहां के बड़े बड़े पद हासिल करते है। विभिन्न प्रोग्राम करते है जिस में उन का गुण गान हो। यह भी कर्म योग नही है।
दृश्य 3 : विचारो और कर्म से धार्मिक, धार्मिक पुस्तके भी लिखते है, प्रवचन भी बहुत अच्छा करते है। किंतु पुस्तको पर रॉयल्टी लेते है, प्रवचन के धन और व्यवस्था भी चाहिए, साथ में नाम का प्रचार भी। यह भी न कर्म योग है न ही कर्म सन्यास।
दृश्य 4 ; साधारण गृहस्थ को चलाते है, व्रत और उपवास करते है, मंदिर में रोज जाते है। अपना भविष्य और सुख की अति अभिलाषा में ज्योतिषों और संत वेश भूषा वाले लोगो को पूजते है। कैसे भी धन कमा कर उस का उपभोग करे, समाज में नाम हो। चरित्र में कोई सच्चाई नहीं।
दृश्य 5; ज्ञान के प्रसार का माध्यम आज टीवी और इंटरनेट है। किंतु उस में भविष्यवाणी, छोटे छोटे टोटके और सांसारिक सुखों को प्राप्ति के उपाय ज्यादा बताए जाते है। व्हाट्सएप पर भगवान की तस्वीर डाल कर या अत्यंत सुंदर उपदेश डाल कर लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। पतंजलि योग में समाधि में भी मनुष्य का योग या साधना तभी तक है, जब तक वह समाधि में ध्यान लगा कर बैठा है। जैसे ही वह समाधि से उठता है, प्रकृति द्वारा उस के मन,बुद्धि और अहम में सांसारिक विकार जन्म ले लेते है।
यह हमारे रोजमर्रा की जिंदगी के चरित्र है, गीता जैसे ग्रंथो को पढ़ने तक सीमित ज्ञान के लोग, जिन्हे व्यवहार में अपना व्यापार और आचरण चाहिए और शिक्षित दिखने के लिए वेद शास्त्रों का ज्ञान। यह हमारा चरित्र अर्जुन से मिलता जुलता है, अंतर यही है अर्जुन अनुसूए था, श्री कृष्ण का अनन्य भक्त था किंतु हम अभी भी आसक्ति, कामना और अहम में ग्रसित है। अर्जुन मुमुक्षु और जिज्ञासु था किंतु हम लापरवाह है।
भगवान श्री कृष्ण को कुशल एवम ज्ञानी प्रवक्ता माने तो यह बात स्पष्ट हो रही है शंकित, मोह ग्रस्त, अहम से भरे शास्त्र योग से युक्त एक क्षत्रिय योद्धा अर्जुन को उन्हीं के प्रश्नों का उत्तर देते देते भगवान मूल शास्त्रज्ञान में तत्वदर्शन के ज्ञान की प्राप्ति के लिये कर्म सन्यास योग की ओर हम सब को ले कर जा रहे है। शमशान का एक चक्कर लगाने मात्र से यह यो समझ में आ जाता है कि पंच तत्व का शरीर इसी में विलीन होता है। फिर जिंदगी भर जिस मोह, कामना एवम अहम से साथ राग-द्वेष, क्रोध, घृणा और लोभ के कारण कर्म करते है उस का कोई अर्थ नही क्योंकि उस का अंत लगभग एक ही है। कोई हमे यह कहे कि तुम स्वयं में परमात्मा हो, नित्य हो, सद्चित्त आनन्द हो, तो हम विश्वास नही करते, क्योंकि जिस आईने में हम अपना स्वरूप देखते है, उस पर कर्मफल के बन्धन की धूल जमी हुई है और यदि यह सभी कर्म, कर्म बंधन के अंतर्गत किये गए है तो उस के फल को भोगने एवम मन के साथ जुड़ी कामनाओं के कारण जन्म मरण का फेरा अवश्य ही लगता रहेगा। अतः हम को बाहर कुछ भी नही खोजना है, जो है वह सब कुछ हमारे पास है, किन्तु अपनी अज्ञान की परत के स्वरूप में जमी धूल साफ करनी है। कर्म योग एवम सांख्य योग द्वारा ही यह धूल हटाई जा सकती है। क्योंकि इसी मार्ग पर चल कर आगे ज्ञान द्वारा तत्व दर्शन होता है, और हम अपने कामना, आसक्ति और अहम के स्वप्न से जाग उठते है।
प्रायः यह धारणा की सन्यासी कर्म से निवृत हो कर कर्म नही करते, गलत है। कर्म जीवन का अनिवार्य भाग है, जब तक शरीर है कोई भी कर्म से भाग नही सकता। सन्यास योग में तत्वज्ञान के लिये कठिन अध्ययन एवम अभ्यास करना पड़ता है, जो ध्यान द्वारा मन एवम बुद्धि को नियंत्रित करना है। जीव अपने को ब्रह्म से जोड़ता है एवम जो भी क्रिया होती है, उसे प्रकृति की क्रिया मान कर करता है। यही सन्यास का आत्म दर्शन है। तत्वदर्शी सन्यासी भी लोकसंग्रह के परमार्थ के कार्य करता है। शंकराचार्य द्वारा वैदिक धर्म प्रणाली का उत्थान, स्वामी समर्थदास जी द्वारा शिवा जी को जो ज्ञान एवम प्रेरणा देना और महृषि व्यास जी द्वारा महाभारत एवम भागवद की रचना आदि आदि अनेक उदाहरण है।
सन्यासी कर्म को प्रकृति की क्रिया समझ कर अपने को उस से मुक्त रखते है किंतु लोकसंग्रह के लिए सन्यासी भी जगत में कर्मयोगी को ज्ञान दे कर समाज का मार्ग दर्शन करते है, शिवा जी के गुरु रामदास समर्थ इस का सटीक उदाहरण है।
भीष्म भी ज्ञानी और योगी थे और व्यास जी। किन्तु वर्ण और आश्रम से दोनो भिन्न भिन्न थे। जो कर्म भीष्म कर सकते थे वह व्यास जी नही और जो कर्म व्यास जी कर सकते थे, वह भीष्म नही। अतः योग जीव के पूर्व संस्कार, गुण, धर्म शिक्षा के अनुसार की करना उचित होता है। कर्म योगी भी उसी तत्वदर्शन का ज्ञान प्राप्त करता है जो सांख्य योगी। वह कर्म के भोक्तत्व भाव को निष्काम को कर मुक्त होता हुआ, कर्तृत्वभाव से मुक्त हो जाता है और सन्यासी कर्तृत्त्व भाव से मुक्त होने से भोक्तत्व भाव से मुक्त होता है।
कर्मयोग पर गीता में अधिक पक्ष रखने का उद्देश्य सिर्फ यही है कि यह युद्ध भूमि में कर्मयोद्धा को सुनाई गई है। गीता सांसारिक लोगो के लिये मोक्ष का मार्ग संसार मे कर्म करते हुए किस प्रकार प्राप्त करे, यही ज्ञान के लिये दी गई है जिस से मोक्ष पर सन्यास मार्ग का एकाधिकार भी समाप्त हो और यह विवाद भी मिटा दिया जाए कि कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। जब जीव का मुख्य उद्देश्य ज्ञान को प्राप्त कर के मोक्ष को प्राप्त करना है।
लोग एवम समाज आप को आप के निष्काम भाव से परिवार, समाज, देश एवम विश्व के लिये किये कार्यो के लिये याद करता है। वैसे ज्ञान युक्त कर्मयोगी क्योंकि तत्वदर्शन को प्राप्त करने के लिये कार्य करता है तो उसे कोई किस रूप में याद करे उसे इस का कोई अर्थ नही वो तो निःद्वन्द एवम निष्काम है। किंतु सृष्टि यज्ञ चक्र मे प्रकृति के त्रिगुण माया में ऐसे लोग संसार के लिये मार्गदर्शक होते है। ज्ञान की प्राप्ति के बाद सांख्य योगी और कर्मयोगी जब तक जीवन है, तब तक लोकसंग्रहार्थ कर्म करते है, फिर ब्रह्म में विलीन को कर मोक्ष को प्राप्त होते है।
गीता में अभी तक हम ने पढ़ा
सांख्य, कर्मयोग और ज्ञान कर्म योग।
अब हम पढ़ कर्म सन्यास योग को पढ़ रहे है। ध्यान से देखे तो द्वितीय अध्याय संक्षिप्त में यह सब था और अब उसी को ही अब एक एक कर के विस्तृत कर के सांख्य एवम कर्मयोग को ही बताया जा रहा है। प्रत्येक मार्ग हमे प्रकृति के क्षणिक सुख दुख, मोह, कामना, आसक्ति एवम अहम से ऊपर उठ कर हम अपने आप से परिचित हो और जाने की हम उस ब्रह्म के अंश है जो गीता धीरे धीरे युद्ध पृष्ठ भूमि को त्याग कर ज्ञान के मार्ग पर चलेगी जिस से हम अपने कर्तव्य धर्म को पहचान कर निष्काम कर्म को कर सके। इस मे जिस भी गुणों का वर्णन कर्मयोगी के लिये किया गया है वो व्यक्त्वि विकास के लिये पूरे संसार ने माना है। इस के साथ साथ यदि हम भी चले तो संभवतः ज्ञान प्राप्त भी हो और तत्व दर्शन का मार्ग भी प्रशस्त हो। किन्तु एक धार्मिक ग्रंथ की तरह अध्ययन करे तो यह आप के ज्ञान में वृद्धि अवश्य करेगी।
हमारा सौभाग्य की व्यास जी भगवान श्री कृष्ण जैसा धैर्यवान, ज्ञानवान, स्पष्ट और निर्भीक, निरासक्त, निष्काम वक्ता दिया जो अर्जुन के स्वरूप में हमारे प्रश्नों को अत्यंत विस्तार से उत्तर दे रहे है। फिर भी यदि हम ज्ञान को एक तरफ रखते हुए, गीता को सिर्फ कंठस्थ करते है, आपस में बहस का विषय बनाते है या गीता के पाठ में अपने सांसारिक सुखों को खोजते है तो हम न तो कर्म योगी है और न ही कर्म सन्यासी। हम प्रकृति के बंधन में कर्म चक्कर में फसे जीव मात्र है। यही बात आगे और स्पष्ट रूप में भी समझेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 5.5 ।।
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