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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  04।। Summary II

।। अध्याय    04 ।। सारांश II

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय: सारांश॥

।। ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दिव्यज्ञानयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥

||ōṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē

jñānakarmasannyāsayōgō nāma caturthō’dhyāyaḥ||

भावार्थ :

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में दिव्यज्ञान-योग नाम का चौथा अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

Meaning:

Thus ends the fourth chapter titled Jnanakarmasannyasa yoga of Srimadbhagavadgita.

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

II Summary of Bhagvad Gita Chapter 4: II

The journey from the first chapter to the fourth chapter is one of higher and higher levels of integrating or tuning our personality.

In the first chapter, we are at the level of selfish action, where we see gain and loss in everything we do. As we move into the second and third chapters, we are introduced to the notion of “nishkaam karma” or desire-less action. Here, we slowly give up attachment to the result of our action by dedicating it to a higher ideal.

In this chapter titled “Jnyaana Karma Sanyaasa Yoga”, we move one level higher from desire-less action to agency-less action. What does agency-less action mean? As the key shloka in this chapter indicates, it is the ability to see inaction in action and action in inaction. When we are operating at the level of a karmayogi, we express our desires through performing actions, but we diminish our sense of “mine-ness” or enjoyership by dedicating all the results to Ishvara.

But as we progress on this path, we begin to realize that all actions happen through Maaya, also known as prakriti or nature. Even actions like the surgeon conducting surgery happen through Maaya, upon closer inspection. We realize that the I, the eternal essence, is just the witness. The I do not do anything. This is agency-less action. Our sense of doership or “I-ness” begins to diminish as well.

Ultimately everything is yajnya in brahman. This is a very deep and subtle means of looking at the world.

To help us practice developing this vision, Shri Krishna gives us simpler yajnyas such as restraining our senses, worship of a deity and so on. But the end goal is jnaana yagnya or the sacrifice of knowledge.

The next chapter goes into more detail about the characteristics which we have to develop in order to be able to realize this very subtle and deep vision.

This chapter also gives us a glimpse of Ishvara, the cosmic power and intelligence that controls this universe. Although beyond birth and imperishable, that power manifests itself whenever there is an extreme disharmony in the universe, restores harmony and becomes unmanifest again.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अध्याय प्रथम से चतुर्थ अध्याय की यात्रा में हम ने पाया कि किस प्रकार अर्जुन को मोह एवम अहम जकड़ लेता है और वो कुछ भी कार्य मे असमर्थ हो कर भगवान श्री कृष्ण की शरण मे जाता है। भगवान उस के संशय, अज्ञान, मोह एवम अहम को समाप्त करने के द्वितीय अध्याय में सांख्य एवम कर्म योग का ज्ञान देते है किंतु अर्जुन का संशय नही मिटता और फिर वो प्रश्न करता कि मार्ग सन्यास का अच्छा है तो कर्म योग क्यों अपनाया जाए। तृतीय अध्याय में निष्काम कर्म को हम ने पढ़ा एवम चतुर्थ अध्याय में ज्ञान कर्म सन्यास योग को पढ़ा।

मात्र यह कह देने से “मुझे कर्म फल की इच्छा नहीं है” कोई सच्चा कर्म योग नही होता। क्योंकि यह कहने वाला मोह ग्रस्त अहम वहां मौजूद है। यदि फल की इच्छा न रहने मात्र से ही कर्म फल शून्य होता हो, तो दुःख फल भोग की इच्छा तो किसी भी पापी को भी नही है। इस लिए मात्र निष्काम हो कर्तव्य भाव से कार्य करने से कर्म फल का बंधन नही छूटता।

चतुर्थ अध्याय में भगवान ने तात्त्विक योग अर्थात आत्म स्वरूप में अभिन्न रूप में स्थित रूप योग की चर्चा की है। जीव का सम्बन्ध परब्रह्म से है, यह पहले भी है, मध्य में भी है और अंत तक रहेगा। किन्तु अज्ञान से जीव अहम और भोक्ता भाव से अपना सम्बन्ध नित्य स्वरूप से त्याग कर अनित्य प्राकृतिक स्वरुप से और संसार से जोड़ लेता है। इस अज्ञान को ज्ञान के द्वारा ही हटाया जा सकता है।

निष्काम कर्म हमे उस उच्च श्रेणी की ओर ले जाता है जो हमारे चेतन को बंधन मुक्त करने के सहायक होती है और हम अपने मोह को त्याग कर सकते है। अतः सच्चा निष्काम कर्म योग यही है कि ज्ञान द्वारा अपने भगवत्स्वरूप में योग पा कर कृतर्त्व बुद्धि रूपी मूल को ज्ञान रूपी अग्नि में दग्ध कर दिया और तत्वदर्शी बन कर ज्ञान प्राप्त किया जाए। ज्ञान कर्म योग सन्यास ज्ञान निष्ठ चित से बिना किसी अहम एवम मोह के कर्म करने का है।

यह ज्ञान अत्यंत पुराना है एवम   भगवान श्री कृष्ण स्वयं अपने अवतार को बताते हुए स्पष्ट करते है कि इस सृष्टि यज्ञ च्रक को चलायमान रखने के वो अपने दिव्य रूप एवम दिव्य कर्म के साथ प्रकट होते है एवम किस प्रकार कर्म करते है।

इस प्रकार भगवान कर्म में अकर्म एवम अकर्म में कर्म के भेद को स्पष्ट करते है कि किस प्रकार कर्म करते हुए भी जीव अकर्म से कर्म के बन्धन से मुक्त हो कर लोकसंग्रह हेतु कर्म कर सकता है एवम सृष्टि यज्ञ चक्कर मे निमित्त हो सकता है।

भगवान ने अनेक प्रकार से कर्म यज्ञ को बताते हुए यह भी कहा कि ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक है और इसे योग्य गुरु द्वारा प्राप्त करके स्वयं को प्रयास करना पड़ता है जिस से तत्वदर्शन समंझ में आता है। ज्ञान के बिना कर्म कभी दिव्य कर्म नही होता और निष्काम कर्म आप को स्वर्ग तो पहुचा देगा किन्तु मोक्ष नही देगा। जिस ने ज्ञान के तत्वदर्शन को प्राप्त किया उस के सारे कर्म अकर्म होते है, अन्यथा कर्म कुछ न कुछ मात्रा में बंधक कारी रहेंगे। अतः ईश्वर के दिव्य कर्म को जिस ने ज्ञान द्वारा समझ लिया है एवम जिस के समस्त संशय, मोह एवम अहम ज्ञान रूपी अग्नि में भस्म हो गए है वो ही सच्चा ज्ञान कर्म योगी सन्यासी है।

भगवान श्री कृष्ण विभिन्न प्रकार के यज्ञ कर्मो का वर्णन करते हुए कहते है कि कर्म द्रव्य अर्थात सांसारिक आसक्ति एवम कामना से करने से बन्धन कारक है किंतु यदि यही कर्म निष्काम कर्म योग में ज्ञान से आध्यात्मिक भाव से किया जाए तो लोकसंग्रह का कार्य भी करते है एवम मोक्ष को प्राप्त करने में सहायक होते है।

प्रकृति के गुण धर्म के अनुसार सहज कर्म निमित्त हो करना, संचित एवम प्रारब्ध कर्म के भोग को कम भी करता है एवम यदि यही कर्म श्रद्धा, विश्वास, तत्परता एवम संयतेंद्रीय से किये जायें तो संचित कर्म भी ज्ञान के प्रभाव से समाप्त हो जाये है। जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष के लिये निष्काम कर्मयोग, ज्ञान योग एवम भक्ति योग को जोड़ते हुए तीन मार्गो का उल्लेख भी किया गया है।

अर्जुन अभी भी संशय में है कि जब तत्वदर्शी होने के सन्यास मार्ग भी है तो भगवान कृष्ण क्यों उस को कर्तव्य पालन का धर्म समझाते हुए युद्ध के लिये कह रहे है। निष्काम कर्म द्वारा भी ज्ञान की प्राप्ति के योग्य हो कर हर योगी को तत्वदर्शी होने के लिए ज्ञान प्राप्त करना ही पड़ता है और उस जगह पहुच कर कर्म का कोई औचित्य नही रह जाता तो क्यों भगवान उसे युद्ध के लिये कह रहे है। अतः इस संशय को फिर वो प्रश्न करता है जिसे हम अगले अघ्याय में पढ़ेंगे।

निष्काम हो कर कर्म करना और अपने को ज्ञान योग की ओर ले जाने के लिये, हम अर्जुन की जगह है। यह ज्ञान कर्म योग सन्यास पुस्तक पढ़ कर हमारे अंदर पैदा नही होता किन्तु जिस को हम नहीं जानते उस अज्ञान से मुक्त होने से हम अपना अभ्यास प्रारम्भ कर सकते है। यह अभ्यास ही हमारे व्यक्त्वि एवम हमारे सोचने समझने की शक्ति को उन्नत करने लगता है।

निष्काम कर्म योग में ज्ञान के प्रादुर्भाव से मोह का नाश होता है,पाप कर्मों का नाश होता है, संचित पाप और पुण्य के समस्त फल भी नष्ट होने से जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति मिल जाती है, जिस से प्रारब्ध कर्म के भोग भी सीमित रह जाते है और जीव का अपना परिचय ब्रह्म स्वरूप से हो जाता है। सामने आईना तो है किंतु अज्ञान के धूल से जो नही समझ मे आ रहा और नही दिख रहा है, वह ज्ञान द्वारा धूल हटाने से वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है। वस्तुत: जीव ब्रह्म का ही अंश है अर्थात ब्रह्म ही है, इसलिए स्वयं में ज्ञानवान और प्रकाशवान है। प्रकृति के संयोग से उस में कृर्तत्व और भोक्तत्व का अज्ञान आने से वह अपने मूल स्वरूप को भूल जाता है, अतः उसे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, उसे अपने अज्ञान को जानने, समझने और उसे हटाने की आवश्यकता है।

गीता अध्ययन में हम गहन अध्ययन की ओर बढ़ रहे है। व्यक्तित्व विकास में या किसी भी मार्ग से हम अपने अंतिम लक्ष्य के ओर जब बढ़ना शुरू करते है तो हमे पहला गुण श्रद्धा-विश्वास, तत्परता एवम संयतेंद्रीय के तीन गुणों से ओत प्रोत होने को कहा गया। गीता बचपन से सुनते, कुछ कुछ हिस्सों में पढ़ते आते रहने से अक्सर यही भ्रम बना रहता है कि हमे सब कुछ आता है, हम अपने अहम में गीता के ज्ञान को कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव दोनो में पढ़ते, सुनते एवम मनन करते रहते है, इसलिये मष्तिक से संशय चाहे निकल भी गया हो, ह्रदय का संशय बना ही रहता है और हम अपने परब्रह्म के स्वरूप को स्वीकार नही करते हुए, सांसारिक स्वरूप में भौतिक रिश्तों एवम वस्तु से आसक्ति, मोह एवम कामना से जुड़े रहते है। इसी को अंत मे ज्ञान की तलवार से खत्म करने का ज्ञान भगवान देते हुए अर्जुन को यही कहते है कि जिन्हें तुम मामा, दादा, भाई, मित्र या गुरु समझ कर मोह से युद्ध नही करने की बात कर रहा है, वह महज प्रकृति की क्रिया है, इस मे कोई भी नित्य नही। तुम आज जिसे मेरा समझ रहे हो,  यह कल नही रहेगा। यह शरीर भी नही रहेगा। जो नित्य स्वरूप है, उसे ज्ञान से प्राप्त करो, निष्काम भाव से उठ कर कर्म करो। प्रकृति क्रिया करती है और तुम इस के निमित्त मात्र हो।

।। हरि ॐ तत सत।। सारांश 4 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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