।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.35।।
।। अध्याय 04.35 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 4.35॥
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥
‘yaj jñātvā na punar moham,
evaḿ yāsyasi pāṇḍava..।
yena bhūtāny aśeṣāṇi,
drakṣyasy ātmany atho mayi”..।।
भावार्थ :
हे पाण्डुपुत्र! उस तत्व-ज्ञान को जानकर फिर तू कभी इस प्रकार के मोह को प्राप्त नही होगा तथा इस जानकारी के द्वारा आचरण करके तू सभी प्राणीयों में अपनी ही आत्मा का प्रसार देखकर मुझ परमात्मा में प्रवेश पा सकेगा। (३५)
Meaning:
Having realized that knowledge, never again will you be subjected to delusion in this manner, O Paandava. By that (knowledge), you will view all beings completely in you, and likewise, in me.
Explanation:
Having explained the method of acquiring knowledge from a teacher, Shri Krishna praises this knowledge in the following shlokas. In this shloka, he provides a test by which we know whether we have truly gained this knowledge or not. He says that this knowledge totally transforms our vision. It gives us whole new way to view the world.
Divine knowledge that comes with enlightenment changes our perspective and vision of the world. Enlightened Saints see the world as the energy of God, and utilize whatever comes their way in the service of God. They also see all human beings as parts of God and harbor a divine attitude toward everyone.
Then the second benefit is after this knowledge, you will know that all living beings, the entire creation is resting in God. The entire creation is resting in God, you will understand;Lord is like space, all pervading. Just as the space supports the whole creation; similarly, Iśvaraḥ sustains the whole creation, you will know.
And then Krishna makes another statement also; He says not only you will know that the whole world is in God, you will also know that the whole world is in you. The whole world in God you will know and you will also know that the whole world is in you.
Imagine we are at a social gathering. We are introduced to a new person, someone whom we have never met before. At that point, we try to size up that person and are not quite sure how the conversation will go. But when we find out that both of us went to the same school for 8 years, we instantly connect with that person. The sense of separation between us and that person diminishes just a little.
Now, take this destruction of separation to its logical extreme where we see all things – plants, rocks, animals, humans – as a part of our own self. Everything is connected to each other. Furthermore, we realize that in essence, distinct entities such as plants and animals are not really distinct. There is only one Ishvaraa but appearing as many forms. This is the grand vision after having obtained this knowledge.
So therefore, having gained this knowledge, our moha or delusion with regards to who we are, what is our correct relationship with the world, what are our duties, what is good and bad – all these questions are answered with this vision of the world. After having this vision, our actions in the wold continue, but they do not accumulate any further karmaas because we are in tune with the world.
Our inability to face the future, because of attachment is the cause of conflicts in life. Our inability to face the future, because of our emotional attachment is the cause of conflict; and you cannot avoid decisions in life, you cannot avoid facing future; and therefore what do you do; we postpone our decision; somehow escape; we will see later. And by postponing how long can you postpone? You have to take some decision in life; how long can you postpone? and each decision is a risky decision because I cannot control my future and as somebody said, marriage is not a word; marriage is a sentence! It is only a joke; so therefore it can end up as a wonderful life or it can end up as a sentence or life imprisonment sentence, where you can never get out.
Therefore conflict is our weakness born out of attachment because of which I want to avoid facing future; and once I have got self-knowledge, the advantage is, I am ready to face any future. That is one thing through which I get strength and I have to take decisions for future.
You are God. It is exactly like the wave being told that after knowledge that you will understand that you, the wave, and the ocean are one and the same; how wave is also essentially water; ocean is also essentially water; in that essence water alone everything is resting; similarly Iśvaraḥ is also essentially caitanyam; you are also essentially caitanyam; in that caitanyam alone, the whole creation is resting.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्वश्लोक में भगवान् ने कहा कि वे महापुरुष तेरे को तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे परन्तु उपदेश सुनने मात्र से वास्तविक बोध अर्थात् स्वरूप का यथार्थ अनुभव नहीं होता और वास्तविक बोध का वर्णन भी कोई कर नहीं सकता। कारण कि वास्तविक बोध करण निरपेक्ष है अर्थात् मन वाणी आदि से परे है। अतः वास्तविक बोध स्वयं के द्वारा ही स्वयं को होता है और यह तब होता है जब मनुष्य अपने विवेक (जड चेतन के भेद का ज्ञान) को महत्त्व देता है। विवेक को महत्त्व देने से जब अविवेक सर्वथा मिट जाता है तब वह विवेक ही वास्तविक बोध में परिणत हो जाता है और जडता से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद करा देता है। वास्तविक बोध होने पर फिर कभी मोह नहीं होता। बंधन हो या मोक्ष दोनो ही मन, बुद्धि एवम मस्तिष्क की उपज है क्योंकि यह प्रकृति से उत्पन्न प्रकृति ही है। वास्तविक मोक्ष तो इन से परे परब्रह्म में विलीन होना है।
ज्ञान की पराकाष्ठा तभी होती है जब जीव की ज्ञान हो जाये कि वो स्वयं ब्रह्म स्वरूप है और प्रकृति का हर जीव, प्रदार्थ सभी ब्रह्म स्वरूप है। ‘अहम ब्रह्मोSस्मि’ का मूल ही दिव्य रूप है। जब तक अहम एवम मोह है तब तक तेरा मेरा है, मोह से ही स्वार्थ एवम कामनाये उपजती है। इसलिए ही अर्जुन को भ्रम है कि वो युद्ध मे भीष्म, द्रोण आदि की हत्या करने जा रहा है। कर्तव्य धर्म के पालन में ब्रह्म कभी भी कर्ता नही होता। यह अहम ही कर्ता का भाव है एवम समस्त क्रिया या कर्म प्रकृति जनित त्रियामी गुणों पर आधारित माया है। अतः भगवान अर्जुन को कहते है इस ज्ञान की प्राप्ति से तुम्हारा मोह छूट जाएगा और तुम अपने और मुझे पहचान पाओगे।
अपनी स्वयं की अनुभूति के द्वारा ही, अपनी अखण्ड -सर्वव्यापी को अपना स्वरूप जानकर, अपने निर्विकल्प स्वरूप के द्वारा अपनी साधना में सिद्ध हुआ महात्मा अपने प्रत्यक्ष आत्मस्वरूप में स्थित रहता है ।
श्रुति के समान गुरू भी तटपर स्थित रह कर ( दूर से, परोक्ष रूप से ) ब्रह्मात्म बोध कराते हैं, विद्वान शिष्य परमेश्वर की कृपा से प्राप्त प्रज्ञा ( भीतर प्रत्यक्ष अनुभूति) के द्वारा ही संसार-सागर को पार कर लेता है
हे अर्जुन! तुम भी आत्मा के इस आनन्दघनस्वरूप परमतत्त्वका विचार करते हुए, अपने मनःकल्पित मोह को छोड़ कर प्रबुद्ध हो जाओ और इस प्रकार मुक्त होकर कृतार्थ हो जाओ ।।
श्रुति ने चक्रवर्ती राजा से लेकर ब्रह्मापर्यन्त का जो विषय आनन्द वर्णित किया है , वह क्षीण हो जानेवाला है , वह न्यूनता और अधिकता से युक्त है , अपने कारण के लीन हो जाने पर एकमात्र पुण्यरूप उपायवाला जो यह विषयजनित आनन्द है , नाश को प्राप्त हो जाता है । अतएव जो पुण्यात्मा लोग विषयजनित सुख को भोगते हैं, उनको भोग के समय भी भारी दुःख होता है और उस विषयसुख भोग का अन्त हो जानेपर तो उन्हें बड़ा भारी दुःख होता है ; क्योंकि विषयों से मिला हुआ सुख , विष मिले हुए भात के समान दुःखदायक ही होता है ।।
विषयजनित सुख भला-बुरा , घटिया-बढिया नाना प्रकार का होता है और हमेशा इस बात का भय लगा रहता है कि यह एक दिन नष्ट हो जायेगा । इस भय के कारण , भोग के समय और भोग के उपरान्त भी दुःख ही देता है ।
विषय सुखकर भोगने के समय , ब्रह्मा आदि पदों पर आसीन और राजा के पद पर पहुँचनेवाले मनुष्यों में जैसे छुटाई-बडाई ( नीचाई-ऊॅचाई ) मानी जाती है ; वैसे ही ब्रह्मा आदि पदों पर पहुंचे हुए प्राणियों को भी दुःख ( क्लेश ) होता है । इसलिए विद्वान पुरुष को विषयों के सुख की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए ।।
व्यवहार में अपने क्षेत्र से बाहर हम जब भी घूमने जाए और वहां कोई अनजान व्यक्ति से बात करते करते आप को मालूम पड़े कि वो आप के शहर का है और आप के परिचितों में किसी को जानता है तो आप की आत्मीयता उस के प्रति बढ़ जाएगी। वैसे ही ब्रह्म का बोध सम्पूर्ण जगत एक हो जानने के लिए है।
बर्बरीक से पांडव महाभारत के युद्घ के उपरांत यह जानने के लिए मिले कि किस ने सब से अधिक सामर्थ्य के साथ युद्ध किया। तो बर्बरीक ने उन के गर्व को भंग करते हुए जवाब दिया था कि उस ने युद्ध मे सिर्फ कृष्ण को ही देखा। मारने वाले से ले कर मरने वाला सभी कृष्ण स्वरुप ही थे। बर्बरीक तत्वदर्शी थे जो आज कृष्ण स्वरूप में खाटूश्याम है।
ऐसा ही प्रसंग कृष्ण की शरद पूर्णिमा के अवसर पर वृंदावन की रास लीला का है जहां कृष्ण ने सैंकड़ो गोपियों केसंग रास किया, कृष्ण तो एक ही थे किंतु सभी के साथ नृत्य कर रहे थे क्योंकि वहां तेरे मेरे का भेद नही था।
मूल में आत्मा और भगवान दोनों एकरूप है। अतएव आत्मा में सब प्राणियों का समावेश होता है। अर्थात भगवान में भी उन का समावेश हो कर आत्मा ( मैं), अन्य प्राणी और भगवान यह त्रिविध भेद नष्ट हो जाता हैं। इसलिये भागवत पुराण में भगवद्भक्तों का लक्षण देते हुए कहा है ” सब प्राणियों को भगवान में और अपने मे जो देखता है, उसे उत्तम भागवत कहना चाहिए ।”
अष्टावक्र गीता में भी बारहवें और तेरहवें प्रकरण में राजा जनक अनुभूति का वर्णन करते हैं कि आत्मा को जान लेनेमात्र से ही मुक्ति नहीं है , अपितु उसे प्राप्त कर लेने से मुक्ति होती है । यही परम सुख है । प्राप्त करने के बाद भी मन की व्याकुलता को पूर्णरूपेण शान्त करने के लिए उसमें निरन्तर स्थित रहना अत्यन्त आवश्यक है, जिस के कारण पिछले जन्मों किये गये पाप- वासनाऔ के बीज को समाप्त किया जा सके । ऐसा व्यक्ति सारे संसार में उसी आत्मा को देखता है , यही आत्मज्ञान की अवस्था है । इस प्रकरण में राजा जनक मुक्ति का वर्णन कर रहे हैं, जो आत्मज्ञान हो जाने के बाद की अवस्था है । राजा जनक कहते हैं कि आत्मज्ञान को प्राप्त हुआ व्यक्ति स्वभाव से शून्य होता है । उस के मन में सभी इच्छायें, भोगवासना और संस्कार आदि की लहरें शान्त होकर मन की व्याकुलता समाप्त हो चुकती है,अब उसमें चयन- उपचयन नहीं है, ऐसी अवस्था को प्राप्त हुआ व्यक्ति हमेशा जागता रहता है ।।
व्यवहार में अज्ञान में हम स्वयं को इस प्रकृति का ही हिस्सा मान कर व्यवहार मोह, माया, ममता में कर्ता और भोक्ता भाव से करते है। इसलिए हमारे अनेक निर्णय पर प्रभाव हमारी कामना, आसक्ति, मोह, लोभ और अहम का होता है। इसलिए अक्सर अर्जुन की भांति निर्णायक मोड़ पर हम निश्चय कर के निर्णय नही ले पाते और दुविधा में जीवन तक गुजार देते है। किंतु जो प्रकृति और समय नहीं ठहरता, वह यह सिद्ध कर देता है कि मनुष्य जीवन जिस का लक्ष्य मोक्ष था, वह अज्ञान में ही व्यर्थ में व्यतीत हो गया। समुंद्र में उठती लहर का कोई अस्तित्व नहीं होता, उसे समुंद्र में विलीन होना ही है। जल ही उस स्वरूप है। वैसे ही जीव के जीवन का कोई अस्तित्व नहीं होता, वह ब्रह्मस्वरूप अंश है, प्रकृति से उस का संयोग अज्ञान है, उस को वास्तविक स्वरूप ब्रह्म ही है, उसे इसे कोई भी नही प्रदान कर सकता है, यह गुरु के द्वारा बोध करवाने के बाद स्वयं को प्राप्त करना होता है।
अगले श्लोक में हम इस ज्ञान का महात्म्य को पढ़ेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। 4.35।।
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