।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.29।। Additional II
।। अध्याय 04.29 ।। विशेष II
।। प्राणयाम और कुंडली जागरण एवम यज्ञ महात्म्य।। विशेष 4.29 ।।
प्राणायाम में यथार्त गीता में स्वामी अड़गड़ानंद जी अपनी व्याख्या कुछ इस प्रकार दी है।
जिसे श्रीकृष्ण प्राण-अपान कहते है उन्हें महात्मा बुद्ध अनापान कहते है। श्वास से बाहर के वायु मंडल के संकल्प आप भीतर खिंचते है और प्रश्वास से आप भीतर के अपने संकल्प बाहर छोड़ते है। बाहर के किसी भी संकल्प को ग्रहण न करना प्राण का हवन है और भीतर किसी भी संकल्प को उठने न देना अपान का हवन है।इस प्रकार प्राण एवम अपान की सम गति हो जाने से प्राणों का याम यानि निरोध हो जाता है यही प्राणायाम है, मन की विजितवस्था है।
इसी प्रकार जप भी चार प्रकार के होते है।
1 बैखरी – इस मे उच्च भाषा मे जप करते है और इसे सभी सुनते है।
2 मध्यमा – इस मे इतना धीरे जप करते है कि पड़ोसी भी न सुन सके।
3 पश्यन्ति – इस मे जप श्वांस के साथ साथ स्वतः चलता है। एक बार लय पकड़ लेने के बाद मन को द्रष्टा बना कर खड़ा कर दे और सांस के अंदर एवम बाहर आने जाने के साथ साथ यह जप शुरू रहता है।
4 परा – इस को अजपा भी कह सकते है। यानि ‘ जपै न जपावै, अपने से आवै’ न मन द्रष्टा है, न ही हम जप रहे है। एक बार लय लग गयी तो स्वतः ही अंदर अंदर यह जप शुरू हो जाता है और न कोई भीतर जाता है और न ही कोई भीतर से बाहर आता है। अतः यह ही परावाणी का जप है जो परम् का दिग्दर्शन कराके उसी में विलीन कर देता है।
जप में क्या जपे इस का कोई उल्लेख नही है किंतु ऐसा माना गया है कि ॐ का उच्चारण अवश्य ही है जप में प्रथम हो।
बैखरी और मध्यमा नाम जप के प्रवेश द्वार है, प्रश्यन्ति से नाम मे प्रवेश मिलता है और परा में नाम धारावाही हो जाता है जिस से जप साथ नही छोड़ता। नाम श्वांस के साथ जुड़ा है। जब श्वांस पर दृष्टि है और श्वांस में नाम ढल चुका है, भीतर से न तो किसी संकल्प का उत्थान है और न बाह्य वायुमंडल के संकल्प भीतर प्रवेश कर पाते है , यही मन पर विजय की अवस्था है। इसी के साथ यज्ञ का परिणाम निकल आता है।
पूर्व में हम ने सात चक्र के बारे में पढ़ा था। यह सात चक्र ही कुंडली अर्थात सर्प के अनुसार अपने अपने स्थान में होते है। प्राणायाम द्वारा इन को जागृत किया जाता है।
प्राण का अग्नि पर प्रहार-यही है कुण्डलिनी जागरण की प्रधान प्रक्रिया। मेरुदंड के वाम भाग के विद्युत प्रवाह को इडा कहते हैं। नासिका से वायु खींचते हुए उसके साथ प्रचंड प्राणवायु प्रचुर मात्रा में घुला होने की भावना की जाती है। खींचे एक श्वाँस को मेरुदंड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुँचने की संकल्पपूर्वक भावना की जाती है। यह मान्यता परिपक्व की जाती है कि निश्चित रूप से इस प्रकार अन्तरिक्ष से खींचा गया और श्वास द्वारा मेरुदण्ड मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और उस पर आघात पहुँचाकर जगाने का प्रयत्न करता है। बार-बार लगातार प्रहार करने की भावना श्वास-प्रश्वास के द्वारा की जाती है। मेरुदंड मार्ग से मूलाधार तक इडा शक्ति के पहुंचने का विश्वास दृढ़ता पूर्वक चित्त में जमाया जाता है।
प्रहार के उपरांत प्राण को वापस भी लाना पड़ता है। यह वापसी दूसरी धारा पिंगला द्वारा होती है। पिंगला मेरुदंड में अवस्थित दक्षिण पक्ष की प्राण धारा को कहते हैं। इड़ा से गया प्राण मूलाधार की प्रसुप्त सर्पिणी महा अग्नि पर आघात करके-झकझोर कर -पिंगला मार्ग से वापिस लौटता है। यह एक प्रहार हुआ।
दूसरा इससे उलटे क्रम से होगा। दूसरी बार दाहिनी ओर से प्राण वायु का जाना और बाई ओर से लौटना होता है। इस बार पिंगला से प्राण का प्रवेश और इडा से वापस लौटना है। प्रहार पूर्ववत्। एक बार इडा से जाना-पिंगला से लौटना। दूसरी बार पिंगला से जाना इडा से लौटना। यही क्रम जब तक प्राणायाम प्रक्रिया चलानी हो तब तक चलना चाहिए। इसे अनुलोम-विलोम क्रम कहते हैं। यही कुण्डलिनी जागरण के लिए प्रयुक्त होने वाला सूर्यभेदन प्राणायाम है। यह कपाल शोधन, वात रोग निवारण, कृमि दोष विनाशक है। इस सूर्यभेदन प्राणायाम को बार-बार करना चाहिए।
कुंडली जागरण की क्रिया किसी अनुभवी और ज्ञानी गुरु के निर्देश पर करनी चाहिए, अन्यथा यह भारी क्षति भी पहुंचा सकती है।
भगवद्गीता में यज्ञ एक ‘जीवनदर्शन’ है। कर्म सम्पादन की शुभ्र व सप्राण प्रेरणा के रूप में यज्ञ की प्रतिष्ठा है; ‘यज्ञार्थ कर्म’ से कर्त्ता के कर्म ही आहुति रूप होकर परमार्थ के विराट कुण्ड में अर्पित किए जाते हैं। कामना, लोभ व निष्क्रियता से रहित जीवन क्रम यज्ञमय बनता है, जो संकीर्णता जन्य असंतोष से मुक्ति प्रदान करने वाला है। यज्ञीय जीवन सहकार व सह-अस्तित्व के मूल्यों से युक्त एक सतत प्रवहमान अवस्था है, जिसमें हर क्षण कर्म व्यक्त व विलीन होते हैं। गीतामें यज्ञ विविध प्रकार से है। इसे अर्पण द्वारा आरोहण की क्रिया माना गया है, जिसमें चेतना निम्न स्वभाव से उच्च व उच्चतर रूपों की ओर बढ़ती है। यह एक ओर साधनों का महत प्रयोजन के लिए संधान है, जो कर्मयोग का पर्याय बनता है, दूसरी ओर आत्म शुद्धि की सूक्ष्म व गुह्य प्रक्रिया।
यज्ञ का यह एक आदर्श सिद्धांत है, जो वेदांत के सिद्धांत से मेल खाता है, और मनुष्य को परम तत्व अद्वैत तक ले जाने वाला है। उपलब्ध स्थूल अथवा सूक्ष्मशक्ति रूप साधनों, योग्यताओं को वर्तमान की चेतना से अगले स्तर की अधिक कुछ पवित्र एवं प्रखर चेतना की ओर आरोहण करने में लगाना (आहुति देना) या प्रयत्न की अग्नि में आहुति देना यज्ञ होगा, ऐसा हम समझ सकते हैं। अब चेतना के स्तर में भी विविधता होती है। इसी दृष्टि से यज्ञ कर्म संपादन की कई विधियों के होने से यज्ञ के विभिन्न प्रकार भी बताए गए हैं। यज्ञ के साधन विविध हैं, हव्य भी नानाविध हैं। यहां यज्ञ के 13 प्रकार गीता के चौथे अध्याय में बताए गए हैं, जिन्हे ज्ञान योग के साथ परमात्मा को अर्पित भाव से किए जा सकता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 04.29 ।।
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