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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  04.28।। Additional II

।। अध्याय    04.28 ।। विशेष II

।। पतंजलि अष्टांग योग –  एक परिचय ।। विशेष 04.28 ।।

पतंजलि का योग सूत्र योग के सिद्धांत और अभ्यास पर संस्कृत सूत्रों ( सूत्रों ) का एक संग्रह है – 195 सूत्र ( व्यास और कृष्णमाचार्य के अनुसार ) और 196 सूत्र ( बीकेएस अयंगर सहित अन्य के अनुसार )। योग सूत्र पुरुष और प्रकृति की सांख्य धारणाओं पर आधारित है और इसे अक्सर इसके पूरक के रूप में देखा जाता है। यह बौद्ध धर्म से निकटता से संबंधित है , जिसमें इसकी कुछ शब्दावली शामिल हैं। सांख्य , योग और वेदांत , साथ ही जैन धर्म और बौद्ध धर्म को उस समय प्रचलित भक्ति परंपराओं और वैदिक कर्मकांड के विपरीत, प्राचीन भारत में तपस्वी परंपराओं की एक व्यापक धारा की विभिन्न अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने के रूप में देखा जा सकता है।

पतञ्जलि (पतंजलि) योग सूत्र में महर्षि पतञ्जलि (पतंजलि) ने विभिन्न ध्यानपारायण अभ्यासों को सुव्यवस्थित कर उन कों सूत्रों में संहिताबद्ध किया है।

योग सूत्र को भारत में ऋषि पतंजलि द्वारा प्रारंभिक शताब्दी ईस्वी में संकलित किया गया था, जिन्होंने बहुत पुरानी परंपराओं से योग के बारे में ज्ञान को संश्लेषित और व्यवस्थित किया था। महर्षि पतंजलि के योग को ही अष्टांग योग या राजयोग कहा जाता है। योग के उक्त आठ अंगों में ही सभी तरह के योग का समावेश हो जाता है। भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी योग के उक्त आठ अंगों का ही हिस्सा है। हालांकि योग सूत्र के आष्टांग योग बुद्ध के बाद की रचना है।

अष्टांग योग : इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजलि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है। लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।

यह आठ अंग हैं- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि।

उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

व्यवहार में पतंजलि योग सूक्त को शरीर की गतिविधीयो एवम स्वस्थ रहने के कुछ क्रिया से जोड़ दिया है, जब कि वास्तविकता यह है कि पतंजलि योग सूक्त क्रमबध पध्दति है जिस से हम शारीरिक, मानसिक एवम बौद्धिक शुद्धता को प्राप्त करते हुए, परब्रह्म में विलीन हो सके। अष्टांग योग में अंतिम योग समाधि एवम प्रारंभिक योग यम है।

योग सूत्र : 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है।यह सूत्र योग के आठ अंगों को दर्शाते है। इस में कुल १९५ सूत्र है जिन्हे ४ पदों में विभाजित किया गया है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

समाधी पाद – इसमें ५१ सूत्र है। इस के अनुसार मन की वृतियों का निरोध ही योग है और चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है।

साधना पाद द्वितीय पाद- इस में ५५ सूत्र है। “क्रिया योग” क्या है और उसके अंगो का वर्णन इस पद में शामिल है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान।में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।

विभूति पाद – इस में भी ५५ सूत्र है। इस अध्याय में संयम का वर्णन है। जिस मे ध्यान, धारणा और समाधी यह योग के आठ अंगो में से अंतिम तीन अंग शामिल है। तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है।

इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

केवल्य पद – इसमें ३४ सूत्र है। परम मुक्ति पर आधारित यह अध्याय सबसे छोटा है। चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-

1).यम: कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।

(2) नियम: मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट है।

(3) आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।

(4) प्राणायाम: योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

(5) प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।

(6) धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।

(7) ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

(8) समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं : सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात।

सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है।

असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।

पतंजलि योग सूक्तम में सामान्य धारणा शारीरिक और मानसिक विकास के योग की है, जबकि समाधि से बाद ही योगी जब अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान पाता है। यहां संयम और ध्यान शुरू होता है जो योगी के लक्ष्य के अनुसार तय है।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 04.28 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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