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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  04.17।।

।। अध्याय    04.17 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 4.17

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं विकर्मणः

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः

“karmaṇo hy api boddhavyaḿ,

boddhavyaḿ ca vikarmaṇaḥ..।

akarmaṇaś ca boddhavyaḿ,

gahanā karmaṇo gatiḥ”..।।

भावार्थ : 

कर्म को भी समझना चाहिए तथा अकर्म को भी समझना चाहिए और विकर्म को भी समझना चाहिए क्योंकि कर्म की सूक्ष्मता को समझना अत्यन्त कठिन है। (१७)

Meaning:

(The meaning of) Action should be known, forbidden action should be known, and also inaction should be known, for inexplicable is the course (nature) of action.

Explanation:

Shri Krishna is going deeper into the definition of karma in this shloka. Previously, we examined the meaning of karma as selfish actions, and akarma as unselfish actions. Now let’s look at what is meant by vikarma. Work has been divided by Shree Krishna into three categories—action (karm), forbidden action (vikarm), and inaction (akarm).

Action Karm: is auspicious actions recommended by the scriptures for regulating the senses and purifying the mind.

Forbidden action: Vikarm is inauspicious actions prohibited by the scriptures since they are detrimental and result in degradation of the soul. Vikarma or forbidden action refers to any action that is not prescribed in one’s svadharma

Inaction Akarm: is actions that are performed without attachment to the results, merely for the pleasure of God. They neither have any karmic reactions nor do they entangle the soul.

We need to use our intellect to determine what is vikarma based on our individual situation.

For example, one could be a vaishya (businessman). His duty is to conduct business and use the earnings for benefit of family and for the benefit society as a whole. There is absolutely no harm if he wants to earn more and more wealth. It is absolutely ok as long as he is using it for the benefit of family and society. but if starts earning by greediness to store and doing non ethical pratice, it is vikarma.

But if one is a student, his goal should be to diligently acquire knowledge. If his attention is diverted towards acquiring more girlfriends, that becomes vikarma. The key point here is that no outside entity can tell someone what their svadharma is. It has to come from within, from deep self-examination and analysis.

one who has learned perfectly knows that every living entity is an eternal servitor of the Lord and that consequently one has to act in Krishna consciousness. The entire Bhagavad-gita is directed toward this conclusion. Any other conclusions, against this consciousness and its attendant actions, are vikarmas, or prohibited actions.

Having examined the definitions of karma, akarma and vikarma, let us know go one step further and understand karma at a much deeper level. Shri Krishna gently warns us that we need to put forth effort to have a correct understanding of this topic, because it is hard to comprehend. Karma is a reaction produced by nature in response to our relationship to it.

Firstly, let us understand what is mean by our relationship to nature. It goes back to our thoughts and our motives. If we are motivated by a selfish spirit, nature will give us a negative reaction, just like electricity gives us a shock if we handle it improperly. Conversely, if we are motivated by a spirit of cooperation and selflessness, we will not get that negative reaction from nature.

Why so? Because we have seen earlier that the spirit of yajna is embedded in nature itself. Prakriti or nature is moving with the yajna spirit, and we are part of nature itself. So therefore, if our thoughts and feelings – not just our actions – are “in tune” with nature and the spirit of yajna, we will not accumulate negative reactions or karma.

Next, let us understand where these reactions come from. They do not come from some outside agency that constantly monitors our actions and gives us karma “points”. These reactions come from nature itself. Nature is like a mirror – if you smile at it, it smiles right back. We have all heard the saying “what goes around comes around”. That is karma.

So what does it mean for us from a practical perspective? We have to constantly use our viveka or discrimination to ensure our thoughts and feelings are working in the spirit of yajna. If our thoughts are unselfish, so too will our actions be unselfish. Otherwise, we will go on accumulating karma which gets lodged in our personality as vaasanaa, which is the very thing that stands between us and self-realization.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जीवन अर्थात प्रकृति क्रियाशील है। क्रिया की समाप्ति ही मृत्यु का आगमन है। क्रियाशील जीवन में ही हम उत्थान और पतन को प्राप्त हो सकते हैं। एक स्थान पर स्थिर जल सड़ता और दुर्गन्ध फैलाता है जबकि सरिता का प्रवाहित जल सदा स्वच्छ और शुद्ध बना रहता है। जीवन शक्ति की उपस्थिति में कर्मो का आत्यन्तिक अभाव नहीं हो सकता। चूँकि मनुष्य को जीवनपर्यन्त क्रियाशील रहना आवश्यक है इसलिये प्राचीन मनीषियों ने जीवन के सभी सम्भाव्य कर्मों का अध्ययन किया क्योंकि वे जीवन का मूल्यांकन उस के पूर्णरूप में करना चाहते थे।

क्रिया ही जीवन है। निष्क्रियता से उन्नति और अधोगति दोनों ही सम्भव नहीं। गहन निद्रा अथवा मृत्यु की कर्म शून्य अवस्था मनुष्य के विकास में न साधक है न बाधक। कर्म के क्षण मनुष्य का निर्माण करते हैं। यह निर्माण इस बात पर निर्भर करता है कि हम कौन से कर्मों को अपने हाथों में लेकर करते हैं। प्राचीन ऋषियों के अनुसार कर्म दो प्रकार के होते हैं निर्माणकारी (कर्तव्य) और विनाशकारी (निषिद्ध)।

नदी के सहारे धारा के साथ साथ चलने पर समुद्र में मिलना होगा, किन्तु शुद्ध स्वरूप नही ग्लेशियर का मुहाना है, उस के लिये ऊपर की ओर बढ़ना होगा।

सृष्टि यज्ञ चक्र के अनुसार प्रकृति भी अपना कार्य करती है अतः जब सृष्टि की रचना के बाद एक दूसरे पर उपकार एवम सेवा भाव से कार्य करने के लिए कहा गया है तो क्रिया जो कर्म, अकर्म एवम विकर्म के उस के परिणाम भी प्रकृति उसी प्रकार से देती है। अकर्म से उन्नति एवम मानसिक सुख एवम आनन्द मिलता है और कर्म से क्षणिक सुख। विकर्म करने वाला प्राणी कभी भी सुख और आनन्द को प्राप्त नही होता। सृष्टि यज्ञ चक्र के अनुसार प्रकृति हमे वो ही लौटा देती है जो हम उसे देते है।

कर्म स्वरूप से एक दिखने पर भी अन्तःकरण के भाव के अनुसार उस के तीन भेद हो जाते हैं कर्म अकर्म और विकर्म। सकामभाव से की गयी शास्त्रविहित क्रिया कर्म बन जाती है। फलेच्छा ममता और आसक्ति से रहित होकर केवल दूसरों के हित के लिये किया गया कर्म अकर्म बन जाता है। विहित कर्म भी यदि दूसरे का अहित करने अथवा उसे दुःख पहुँचाने के भाव से किया गया हो तो वह भी विकर्म बन जाता है। निषिद्ध कर्म तो विकर्म है ही। 

निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्म के तत्त्व को जानना है। जब कामना अधिक बढ़ जाती है तब विकर्म (पापकर्म) होते हैं। दूसरे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में भगवान् ने बताया है कि अगर युद्धजैसा हिंसायुक्त घोर कर्म भी शास्त्र की आज्ञा से और समतापूर्वक (जयपराजय लाभहानि और सुखदुःख को समान समझ कर) किया जाय तो उस से पाप नहीं लगता। तात्पर्य यह है कि समतापूर्वक कर्म करने से दिखने में विकर्म होता हुआ भी वह अकर्म हो जाता है। यहां यह भी जानना आवश्यक के सात्विक भाव से किया कर्म ही अकर्म है। राजस भाव आने से ही अकर्म कर्म हो जाता है।

देश सेवा की भावना से राजनीति में कार्य करना अकर्म  है किंतु उस की सुख सुविधा से कामना प्राप्त करते ही वो कर्म हो जाता है, और पद को रखने से निषिद्ध क्रिया करने पर यही  विकर्म में बदल जाता है।

इसी प्रकार विद्यार्थी के शिक्षा के अतिरिक्त जो भी कार्य जिस से शिक्षा में बाधा हो, किये जाते वो विकर्म है।

शास्त्रनिषिद्ध कर्म का नाम विकर्म है। विकर्म के होने में कामना ही हेतु है । अतः विकर्म का तत्त्व है कामना और विकर्म के तत्त्व को जानना है विकर्म का स्वरूप से त्याग करना तथा उसके कारण कामना का त्याग करना। कौन सा कर्म मुक्त करनेवाला और कौनसा कर्म बाँधनेवाला है इस का निर्णय करना बड़ा कठिन है। कर्म क्या है अकर्म क्या है और विकर्म क्या है इस का यथार्थ तत्त्व जानने में बड़े बड़े शास्त्रज्ञ विद्वान् भी अपने आप को असमर्थ पाते हैं। अर्जुन भी इस तत्व को न जानने के कारण अपने युद्धरूप कर्तव्य कर्म को घोर कर्म मान रहे हैं। अतः कर्म की गति (ज्ञान या तत्त्व) बहुत गहन है।

युद्ध जैसी स्थिति में जहां अर्जुन जैसा योद्धा खड़ा है, वह यदि अपने राज्य को पुनः  प्राप्त करने के लिए युद्ध करता है तो उस का युद्ध कामना से लिप्त होने से कर्म है, और यदि वह धर्म की रक्षा हेतु अन्याय के विरोध में युद्ध करता है, जिस में जीतने पर उसे राज्य मिलने या सुख भोग की आशा न हो तो वह विकर्म है और यदि वह द्वेष भाव से बदला लेने और युद्ध में उस के विरुद्ध लड़ने वालों को कष्ट देने के लिए युद्ध करता है या मोह और भय से युद्ध का त्याग करता है तो यह विकर्म है। भगवान श्री कृष्ण द्वारा प्रत्येक स्थिति में एक ही क्रिया केवल व्यक्ति के अध्यात्म, भावना और लालसा में कर्म, अकर्म या विकर्म हो सकते है।

यदि हम कर्ण, द्रोण या भीष्म के युद्ध भूमि खड़े हो कर युद्ध करने का कर्म का विश्लेषण करे तो तीनो अत्यंत ज्ञानी, परमयोधा और कर्तव्य धर्म का पालन करने के लिए खड़े थे। तीनो को युद्ध जीतने या कोई लाभ लेने की लालसा भी नही थी। किंतु यह तीनों जिस के युद्ध लड़ रहे थे, वह स्वार्थी, लोभी और अधर्मी था। इसलिए अधर्म का साथ देने के कारण इन के कर्म भी विकर्म अर्थात न करने योग्य कर्म था। इसलिए कृष्ण ने इन का बध भी करवाया, चाहे यह कृष्ण के भी परमभक्त थे। अतः व्यक्तिगत धर्मोचित कर्म भी अधर्म के साथ हो तो निषिद्ध कर्म ही कहलाता है।

आज भी कोई नास्तिक या धर्म निरपेक्ष व्यक्ति कितना भी ज्ञानी, धार्मिक और न्यायोचित हो, किंतु यदि वह लोभ, कामना, पद, सत्ता, धन, भय, मोह में अधर्म के साथ है और न्यायोचित कर्म नहीं करता तो उस का कर्म विकर्म ही होगा। गंगा जल यदि नाले के पानी से मिले तो नाले का जल शुद्ध नही होता, वरन गंगा जल ही अशुद्ध और तिरस्कार योग्य होता है।

अक्सर व्यवसाय में लाभ कमाने या दान देने में पुण्य कमाने या मंदिर में परमात्मा से सुख की प्राप्ति की आशा से प्रसाद चढ़ाने में अंतर करते है किंतु यह सभी कर्म ही है। यह सभी अकर्म तभी हो सकते है जब लोकसंग्रह के लिए हो और बदला या किसी को हानि पहुंचाने के लिए हो तो विकर्म। इसलिए एक ही क्रिया विभिन्न स्वरूप में होने से अक्सर व्यक्ति कर्म, अकर्म और विकर्म में अंतर नही कर पाते।

यद्यपि कर्म का विश्लेषण सार्वजनिक रूप से सही भी, व्यक्तिगत स्वरूप में भी हमे समझना होगा, जिसे हम अगले श्लोक में पढ़ेंगे।

इस श्लोक के कर्म शब्द में मनुष्य के विकास में साधक के निर्माणकारी कर्तव्य कर्मों का ही समावेश है। जिन कर्मों से मनुष्य अपने मनुष्यत्व से नीचे गिर जाता है उन कर्मों को यहाँ विकर्म कहा है जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कर्म का नाम दिया है। कर्तव्य कर्मों का फिर तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और वे हैं नित्य नैमित्तिक और काम्य। जिन कर्मों को प्रतिदिन करना आवश्यक है वे नित्य कर्म तथा किसी कारण विशेष से करणीय कर्मों को नैमित्तिक कर्म कहा जाता है। इन दो प्रकार के कर्मों को करना अनिवार्य है। किसी फल विशेष को पाने के लिए उचित साधन का उपयोग कर जो कर्म किया जाता है उसे काम्य कर्म कहते हैं जैसे पुत्र या स्वर्ग पाने के लिये किया गया कर्म। यह सबके लिये अनिवार्य नहीं होता। आत्मविकास के लिये विकर्म का सर्वथा त्याग और कर्तव्य का सभी परिस्थितियों में पालन करना चाहिये।

वैज्ञानिक पद्धति से किये हुए इस विश्लेषण में श्रीकृष्ण अकर्म की पूरी तरह अपेक्षा करते हैं।यह आवश्यक है कि अपने भौतिक अभ्युदय तथा आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक साधक कर्मों के इस वर्गीकरण को भली प्रकार समझें।भगवान् श्रीकृष्ण इस बात को स्वीकार करते हैं कि कर्मों के इस विश्लेषण के बाद भी सामान्य मनुष्य को कर्म अकर्म का विवेक करना सहज नहीं होता क्योंकि कर्म की गति गहन है। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि कर्म का मूल्यांकन केवल उसके वाह्य स्वरूप को देखकर नहीं बल्कि उसके उद्देश्य को भी ध्यान में रखते हुये किस भावना से किया गया है,  करना चाहिये। उद्देश्य की श्रेष्ठता एवं शुचिता से उस व्यक्ति विशेष के कर्म श्रेष्ठ एवं पवित्र होंगे। इस प्रकार कर्म के स्वरूप का निश्चय करने में जब व्यक्ति का इतना प्राधान्य है तो भगवान् का यह कथन है कि कर्म की गति गहन है अत्यन्त उचित है।

सन्यास मार्ग में कर्म के त्याग को मान्यता दी है। किन्तु भगवान श्री कृष्ण कर्म के त्याग को मान्यता न दे कर उस से जुड़ी आसक्ति, अहम और कामना के त्याग की बात कर रहे है, जिस से कर्म अकर्म हो कर लोकसंग्रह का हेतु बने।

अक्सर कर्म एवम अकर्म में गहन समझ न होने से लोग कहते है, मेरा इस कर्म में कोई आसक्ति या कामना या अहम नही है किंतु सही समझ न होने से यह कहना भी अहम है। दान देने वाला अपने  को दाता समझता है तो वह अकर्म नही हो सकता। इसलिये कर्म – अकर्म को गहन रूप से समझना अत्यंत आवश्यक है। शब्द और क्रिया से कोई भी कर्म का वर्गीकरण नही हो सकता, इस का वर्गीकरण क्रिया करने वाले के कर्तव्य, धर्म, आत्मशुद्धि और कर्म की अनिवार्यता पर होना चाहिए।

आगे हम कर्मो के तत्वों को जानने वालों के बारे में भगवान से सुनेंगे जिस से कर्म-अकर्म का सही विश्लेषण कर सके।

।।हरि ॐ तत सत।। 4.17।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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