।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.16।। Additional II
।। अध्याय 04.16 ।। विशेष 4.16 II
।।स्वामी अड़गड़ानंद जी द्वारा अकर्म की व्याख्या।। विशेष 4.16।।
यथार्थ गीता में स्वामी अड़गड़ानंद जी के अनुसार कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, अकर्म का स्वरूप ही समझना चाहिए और विकर्म अर्थात विकल्प शून्य विशेष कर्म जो आप्तपुरुषो द्वारा होता है उसे भी जानना चाहिए; क्योंकि कर्म की गति गहन है। कतिपय लोगो ने विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म, मन लगा कर किया गया कर्म इत्यादि किया है। वस्तुतः यंहा ‘वि’ उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है। प्राप्ति के पश्चात महापुरुषों के कर्म विकल्प शून्य होते है। आत्मस्थित आत्मतृप्त, आप्तकाम महापुरुषों को न तो कर्म करने से लाभ है और न छोड़ने से कोई से कोई हानि ही है, फिर भी वे पीछेवालो के हित के लिये कर्म करते है। ऐसा कर्म विकल्पशुन्य है, विशुद्ध है और यही कर्म विकर्म कहलाता है।
सामान्य परिभाषा में विकर्म को निषिद्ध या तामसी कर्म कहा गया है।
उन के विचारों का समर्थन मुझे किसी भी अन्य गीता की मीमांसा करने वालो में नही दिखा एवम कर्म के वर्गीकरण में निषिद्ध कर्म के लिए अन्य कोई भी वर्गीकरण नही है। इसलिए इस को मुख्य श्लोक के अर्थ में शामिल नही किया। किंतु स्वामी अड़गड़ानंद जी की यथार्थ गीता भी हमारे अध्ययन का भाग है, इसलिए उन के विचारो को भी पढ़ना आवश्यक है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 4.16 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)