Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  04.16।।

।। अध्याय    04.16 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 4.16

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्

“kiḿ karma kim akarmeti,

kavayo ‘py atra mohitāḥ..।

tat te karma pravakṣyāmi,

yaj jñātvā mokṣyase ‘śubhāt”..।।

भावार्थ : 

कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस विषय में बडे से बडे बुद्धिमान मनुष्य भी मोहग्रस्त रहते हैं, इसलिए उन कर्म को मैं तुझे भली-भाँति समझा कर कहूँगा, जिसे जानकर तू संसार के कर्म-बंधन से मुक्त हो सकेगा। (१६)

Meaning:

What is action and what is inaction? Seers are deluded in this regard. To you, I will explain that action, by knowing which you will gain liberation from this inauspicious (nature of samsaara).

Explanation:

As we continue to move forward in the Gita, we comes across milestones where Shri Krishna takes us from one level of understanding to a more advanced level.

What is proper action and what is improper action? This is difficult to determine even for the great ṛiṣhis and the celestial gods. Dharma has been created by God himself, and he alone is its true knower.” Lord Krishna says to Arjun that he shall now reveal to him the esoteric science of action and inaction through which he may free himself from material bondage.

It is said that one cannot ascertain the ways of religion simply by imperfect experimental knowledge. Actually, the principles of religion can only be laid down by the Lord himself.  No one can manufacture a religious principle by imperfect speculation.

If you want to get out of tension caused by your duties and responsibilities in life, you should know exactly what is the nature of karma. And do not think that it is an easy subject, even great philosophers have analysed this and after long analysis they have come to wrong conclusion;

He says philosophers; great thinkers; even great thinkers are confused with regard to this subject matter and what is that subject matter what exactly is action; and what exactly is actionlessness; or inaction. So what is action; what is inaction; even scholars are deluded. He said this discussion is not merely of academic interest alone, this is not an arm-chair philosophy subject, but it has got a practical value in life also.And what is the practical value, by gaining this knowledge, you will get freedom; so you will be freed; you will be released from what; from all types of pains in your mind; aśubham means amaṅgalam; amaṅgalam means pains or sorrows; caused by anxiety, tension, worry, and jealousy also.

Jñāni is one who is the master of the situation; ajñāni is one who is mastered by, who is enslaved by the situation; and therefore by gaining this knowledge, you are released from the tyranny of the surrounding and the people, you are like a thermostat, unaffected by both karma, as well as the karma phala; You can fight the Mahabharatha war, coolly. you will be freed from samsara.

The principles of dharma cannot be determined by mental speculation. Even intelligent persons become confused in the maze of apparently contradictory arguments presented by the scriptures and the sages. For example, the Vedas recommend non-violence. Accordingly in the Mahabharat, Arjun wishes to follow the same course of action and shun violence but Shree Krishna says that his duty here is to engage in violence. If duty varies with circumstance, then to ascertain one’s duty in any particular situation is a complex matter.

One must follow in the footsteps of great authorities like Brahma, Siva, Narada, Manu, the Kumaras, Kapila, Prahlada, Bhishma, Sukadeva Gosvami, Yamaraja, Janaka, and Bali Maharaja. By mental speculation one cannot ascertain what is religion or self-realization. Therefore, out of causeless mercy to His devotees, the Lord explains directly to Arjuna what action is and what inaction is. Only action performed in Krishna consciousness can deliver a person from the entanglement of material existence.

Let us recap what we have learned so far about action and inaction. Action or karma as defined by Shri Krishna is any activity performed with a selfish motive. Inaction or akarma is defined as any activity performed in a selfless manner. In other words, with a yajnya spirit. It is important to revise these definitions because Shri Krishna says that even intelligent people very easily get confused by this terminology, since action typically means any activity and inaction means absence of activity.

Why is this topic important? Unless our intellect fully understands and gets the conviction that we can achieve self- realization through performance of action, we will again and again fall prey to the wrong notion that we should renounce everything.

This is evident in our daily lives. Whenever we feel pressure at our job, we start thinking about changing jobs. If we have to resolve a delicate issue impacting our friends or relatives, we may try to defer or avoid it altogether rather than addressing it. We have an inbuilt tendency to avoid performing actions, even though all our bodies can do is perform action.

After long time only we know that we are taking for granted, we never enquired into; like the apple falling; still what we do; we eat immediately and give a burp. Only a rare scientist thinks that why should it fall down and not go down. Thus in life, many things we have taken for granted and one thing we have taken for granted is the nature of action.

What is action; and to whom does action belong. And our basic misconception is that I am doing all actions and Krishna wants to point out that Arjuna you are not doing any action at all.

Therefore, Shri Krishna wants us to have a thorough understanding of the nature of action so that it becomes a part of our life, than something that we just read about.

।। हिंदी समीक्षा ।।

हिंदी व्याकरण के आधार पर कर्म एक क्रिया है और उसी प्रकार अकर्म उस क्रिया को न करना होगा। किन्तु गीता में सोना, उठना, सांस लेना, भोजन करना आदि सभी कर्म है तो अकर्म की स्थिति जीवित रहते कब और कैसे हो सकती है।

साधारणतः मनुष्य शरीर और इन्द्रियों की क्रियाओँ को ही कर्म मान लेते हैं तथा शरीर और इन्द्रियों की क्रियाएँ बंद होने को अकर्म मान लेते हैं। परन्तु भगवान् ने शरीर वाणी और मन के द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाओँ को कर्म माना है। अर्थात मनोनिग्रह की कर्म को तय करता कि कर्म का प्रभाव क्या होगा क्योंकि हाथ पांव तो जो क्रिया करते है उस के पीछे मन एवम चेतन की कामना काम करती है। भाव के अनुसार ही कर्म की संज्ञा होती है। भाव बदलने पर कर्म की संज्ञा भी बदल जाती है। जैसे कर्म स्वरूप से सात्त्विक दिखता हुआ भी यदि कर्ता का भाव राजस या तामस होता है तो वह कर्म भी राजस या तामस हो जाता है। जैसे कोई देवी की उपासनारूप कर्म कर रहा है जो स्वरूप से सात्त्विक है। परन्तु यदि कर्ता उसे किसी कामना की सिद्धि के लिये करता है तो वह कर्म राजस हो जाता है और किसी का नाश करने के लिये करता है तो वही कर्म तामस हो जाता है। इस प्रकार यदि कर्ता में फलेच्छा ममता और आसक्ति नहीं है तो उस के द्वारा किये गये कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल में बाँधनेवाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि केवल बाहरी क्रिया करने अथवा न करने से कर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। इस विषय में शास्त्रों को जानने वाले बड़े बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं अर्थात् कर्म के तत्त्व का यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते। जिस क्रिया को वे कर्म मानते हैं वह कर्म भी हो सकता है अकर्म भी हो सकता है और विकर्म भी हो सकता है। कारण कि कर्ता के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप बदल जाता है। इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि वास्तविक कर्म क्या है वह क्यों बाँधता है कैसे बाँधता है इस से किस तरह मुक्त हो सकते हैं इन सबका मैं विवेचन करूँगा जिस को जानकर उस रीति से कर्म करने पर वे बाँधनेवाले न हो सकेंगे। यदि मनुष्य में ममता आसक्ति और फलेच्छा है तो कर्म न करते हुए भी वास्तव में कर्म ही हो रहा है अर्थात् कर्मों से लिप्तता है। परन्तु यदि अहम, ममता आसक्ति और फलेच्छा नहीं है तो कर्म करते हुए भी कर्म नहीं हो रहा है अर्थात् कर्मों से निर्लिप्तता है। तात्पर्य यह है कि यदि कर्ता निर्लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना दोनों ही अकर्म हैं और यदि कर्ता लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना दोनों ही कर्म हैं और बाँधनेवाले हैं।

कर्म के दो भेद बताये हैं कर्म और अकर्म। कर्म से जीव बँधता है और अकर्म से (दूसरों के लिये कर्म करने से) मुक्त हो जाता है। और जो कर्म तामस बुद्धि से शास्त्रों से वर्जित किया जाता है उसे विकर्म अर्थात निषिद्ध कर्म भी कहते है।

जब हम किसी लालसा या कामना से दूर भागते हुए सन्यासी बनते है तो वो लालसा या कामना हमारे अंदर  ही रह जाती है औऱ मन के द्वारा पूरी होने के चेष्ठा में लगी रहती है। अतः सन्यासी गेरुवे वस्त्र पहने या जंगल मे रहे वो कर्म में लगा रहता है। कर्म शारीरिक ही हो यह जरूरी नही, मानसिक सोचना, विचार करना भी कर्म ही है। गीता इसलिये आसक्ति को त्याग कर कर्म करने को कहती है जिस से कर्म भी सृष्टि यज्ञ की भांति हो और फल भी न मिले। ऐसे कर्म अकर्म कहलाते है। कर्म त्याग का अर्थ यही है कर्म करते हुए उस की आसक्ति एवम कामना का त्याग है जिसे कुछ लोग अकर्म को गलत समझ कर क्रियाओं का त्याग तो कर देते है किंतु कामना एवम आसक्ति का त्याग नही करते और उन का मन चेतन के साथ नित्य कर्म में लग कर विचारों द्वारा कर्म में लगा रहता है।

कर्मों का त्याग करना अकर्म नहीं है। भगवान् ने मोहपूर्वक किये गये कर्मों के त्याग को तामस बताया है। शारीरिक कष्ट के भय से किये गये कर्मों के त्याग को राजस बताया गया है। तामस और राजस त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग होने पर भी कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। कर्मों में फलेच्छा और आसक्ति का त्याग सात्त्विक है। सात्त्विक त्याग में स्वरूप से कर्म करना भी वास्तव में अकर्म है क्योंकि सात्त्विक त्याग में कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। अतः कर्म करते हुए भी उस से निर्लिप्त रहना वास्तव में अकर्म है।

कर्म करने के दो मार्ग हैं प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग। प्रवृत्तिमार्ग को कर्म करना कहते हैं और निवृत्तिमार्ग को कर्म न करना कहते हैं। ये दोनों ही मार्ग बाँधनेवाले नहीं हैं। बाँधनेवाली तो कामना ममता आसक्ति है चाहे यह प्रवृत्ति मार्ग में हो चाहे निवृत्तिमार्ग में हो। यदि कामना ममता आसक्ति न हो तो मनुष्य प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग दोनों में स्वतः मुक्त है। अतः कर्म को समझने में अनेक विद्वान मोहित हो जाते है अकर्म की बजाय मोह में फस कर कर्म करने लगते है।

प्रथम अध्याय के अर्जुन विषाद में अर्जुन ने युद्ध भूमि त्याग कर सन्यास लेने की बात की थी। अर्जुन के कर्म और अकर्म का भेद वैदिक संस्कृति में प्रकृति की क्रियाओं में उस के वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ण के अनुसार ही तय होना है। युद्ध भूमि में युद्ध करना या न करना, दोनो स्थिति में वह अर्जुन के कर्म ही होंगे। इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कहते है कि युद्ध नही करने से अर्जुन को अकर्म की स्थिति प्राप्त नही हो सकती क्योंकि उस के मन मे यह भाव सदा बना रहेगा कि उस ने युद्ध का त्याग किया है। व्यवहारिक जीवन मे जब कठिन परिस्थिति आने पर जब हम त्याग की भावना से किसी कर्म से पीछे हट जाते है तो उस त्याग से बंध जाते है। बहुत लोग यही कहते है कि उस व्यक्ति ने मेरे पैसे चुरा लिए किन्त झंझट में नही पड़ने के कारण मैंने कुछ भी नही किया। यह त्याग का ही बन्धन है जो कुछ नही करने पर भी बांध देता है।

भगवान श्री कृष्ण का कहना है कि कर्म और अकर्म की कोई परिभाषा या विधि संभव नही। किंतु जो भी कर्म निष्काम और निर्लिप्त भाव से अपने कर्तव्य कर्म के साथ परमात्मा को समर्पित हो किया जाए, वही अकर्म है। आप के सामने एक  समुदाय विशेष कुछ अनैतिक कार्य कर रहा है और आप भय से या किसी झंझट में नही पड़ने के कारण या उस का अनैतिक कार्य आप को या आप के नजदीकी व्यक्ति तो नुकसान नहीं देता, आप अपने  आप को विरक्त रखते है, तो यह विरक्ति की कर्म है, कारण आप के विरक्त रहने का उद्देश्य ही आप के कर्म का फल है। किसी कार्य को नही करना भी एक कर्म है।

अतः यह स्पष्ट के अकर्म का अर्थ किसी कर्म को नही करना   नही हो सकता, जब तक कामना, आसक्ति, मोह, कर्तव्य या कर्ताभाव से हम उस कर्म से बंधे है। क्योंकि हमारी मानसिक स्थिति हमे उस कर्म से मुक्त नहीं होने देती। मानसिक स्थिति में भी मुक्ति तभी है, जब कर्म को आसक्ति, कामना और कर्ता भाव त्याग कर परमात्मा को समर्पित भाव से किया जाए, जिसे  हम निष्काम और निर्लिप्त भाव भी कहते है। जीव का यह अज्ञान है कि वह प्रकृति के साथ जुड़ा कर्ता है। यह अज्ञान तभी मिटेगा, जब वह अपने को प्रकृति से अलग देख सकेगा। ज्ञान की स्थिति में ही उसे ज्ञात होगा कि जो भी क्रियाएं हो रही है, वह प्रकृति कर रही है।

वैदिक संस्कृति के नियमो या कार्य की रचना परमात्मा द्वारा की गई है, जिसे हमारे ऋषियों में श्रुति के स्वरूप में सुना और वेदव्यास जी ने वेदों के माध्यम से लिपि बद्ध किया। परंतु इस को सुनने वाले से लिखने वाले सभी उस स्थिति को प्राप्त थे जो ब्रह्मसंध की स्थिति अर्थात जिन्हे अपने ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान था। जिस के कारण उन ऋषियों में प्रकृति के गुणों लोभ, स्वार्थ, ममता, कामना , आसक्ति या कर्ताभाव का अभाव था और इसके कारण हमे श्रुति अर्थात वेदों के रचियता के नाम नही मालूम, और ब्रह्मसंध द्वारा सुने जाने से हम इसे स्वयं परमात्मा द्वारा रचा मानते है। परंतु जब वेदव्यास जी ने इसे लिपि बद्ध किया तो इसी से कुछ दार्शनिको, महऋषियों, महात्माओं ने अपने अपने विचार के अनुसार अनेक पंथ जैसे आर्य समाज, ब्रह्म कुमारी, राधास्वामी, स्वामी नारायण, इस्कान आदि आदि बना लिए। जो वेदों, उपनिषदों और पुराणों की व्याख्या अपने अपने तरीके से करते है, कुछ भक्ति भाव से और कुछ ज्ञान मार्ग से। अतः कर्म और अकर्म के व्याख्या भी इतनी तरीके से हो गई कि सामान्य मनुष्य इस को समझने की अपेक्षा सम्मोहित हो कर किसी भी पंथ का अनुसरण करता है। इसलिए कहा जाता है कि भगवद गीता और वेद अनेक बार पढ़ने और समझने से ही ज्ञान में परिवर्तित होते है। पहले यह सिर्फ जानकारी या आप को शिक्षित ही करते है। इसलिए इस प्रकार शिक्षा के साथ अकर्म दिखते हुए भी सभी कर्म ही करते है, जो अपने फल से बंधन को प्रदान करते है। जब सत्य सनातन हो तो किसी धर्म, मत, संप्रदाय, पंथ या आश्रम से जुड़ा हो तो सनातन नही होगा। वहां कर्ता भाव, मोह, आसक्ति सत्ता, संपति, सुख – सुविधा में ही होगा। अतः वहां किए समस्त कर्म अकर्म नही हो सकते।

संवाद जब भी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को व्यक्त होता है तो यह संवाद करने वाले और संवाद सुनने वाले के ज्ञान पर निर्भर करता है। संवाद करने वाला तत्वदर्शी या ब्रह्मविद हो और संवाद सुननेवाला अनुसूय हो तो संवाद सही होता है। यही स्थिति कर्म और अकर्म की है। यदि कर्म लोकसंग्रह के लिए निष्काम और निर्लिप्त भाव से किया जाए तो यह अकर्म है किंतु निष्काम और निर्लिप्त भाव का अर्थ यही है कि प्रकृति जिसे कर्म के चुने वह भी सत्वगुणी या सत्वगुण के साथ राजगुणी हो। तामसी गुण में अकर्म नही हो सकते चाहे वह कितना भी ज्ञानी क्यों न हो।

गीता में पूर्ण ज्ञान देने के बाद अपने प्रत्येक शब्द के अर्थ को विस्तृत करने करते हुए गीता अब नया मोड़ ले रही है। जिस से भ्रम की स्थिति न रहे।

आगे हम कर्म के तत्व के बारे में जानेंगे। अभी कर्म, अकर्म एवम विकर्म को ध्यान में रख कर ध्यान पूर्वक समझने की चेष्ठा करते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 4.16।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

Leave a Reply